तारास्तोत्रम् अथवा ताराष्टकं अथवा श्रीनीलसरस्वतीस्तोत्रम्
श्रीगणेशाय नमः ।
मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे । (शिवहृदि)
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले
खड्गं चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥ १॥
वाचामीश्वरि भक्तिकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धिश्वरि
गद्यप्राकृतपद्यजातरचनासर्वार्थसिद्धिप्रदे ।
नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारान्निधे
सौभाग्यामृतवर्धनेन कृपयासिञ्च त्वमस्मादृशम् ॥ २॥
खर्वे गर्वसमूहपूरिततनो सर्पादिवेषोज्वले (शर्वे)
व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाङ्किते ।
सद्यःकृत्तगलद्रजःपरिमिलन्मुण्डद्वयीमूर्द्धज-
ग्रन्थिश्रेणिनृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय ॥ ३॥
मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्द्धचन्द्राम्बिके
हुंफट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः ।
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा
परा वेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ॥ ४॥
त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां
तस्याः श्रीपरमेश्वरत्रिनयनब्रह्मादिसाम्यात्मनः ।
संसाराम्बुधिमज्जने पटुतनुर्देवेन्द्रमुख्यासुरान्
मातस्ते पदसेवने हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ॥ ५॥
मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजोमुद्राङ्ककोटीरिणस्ते
देवा जयसङ्गरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः ।
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्द्धां वहन्तः परे
तत्तुल्यां नियतं यथा शशिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ॥ ६॥
त्वन्नामस्मरणात्पलायनपरान्द्रष्टुं च शक्ता न ते
भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षश्च नागाधिपाः ।
दैत्या दानवपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो
डाकिन्यः कुपितान्तकश्च मनुजान् मातः क्षणं भूतले ॥ ७॥
लक्ष्मीः सिद्धिगणश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां
स्तम्भश्चापि वराङ्गने गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम् ।
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्ध्यन्ति ते ते गुणाः
क्लान्तः कान्तमनोभवोऽत्र भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः ॥ ८॥
(फलश्रुतिः ।)
ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः । (ताराष्टकमिदं रम्यं)
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः ॥ ९॥
लभते कवितां विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद्भवेत्
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ॥ १०॥
कीर्तिं कान्तिं च नैरुज्यं सर्वेषां प्रियतां व्रजेत् ।
विख्यातिं चापि लोकेषु प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ॥ ११॥
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इति श्रीबृहन्नीलतन्त्रे तारास्तोत्रं अथवा ताराष्टकं सम्पूर्णम् ॥
श्रीनीलसरस्वतीस्तोत्रम् च
हिन्दी भावार्थ
प्रणाम करनेवाले भक्तों को सौभाग्य-सम्पत्ति देनेवाली, भगवान् शिव को छाती पर दायाँ पैर रखकर खड़ी होनेवाली, मुस्कान-युक्त कमल-मुखी, खिले हुये नील-कमल-सम तीन नेत्रोंवाली, कैंची, नर-कपाल, नील-कमल और खड्ग धारण करनेवाली हे नील सरस्वति माँ! मैं तुम सर्वेश्वरी की शरण का आश्रय लेता हूँ ॥ १॥
वाणी की ईश्वरी, भक्तों के लिये कल्प-लता, सभी कामनाओं की सिद्धि देनेवाली, गद्य-पद्य-रचना एवं सर्वज्ञता की सिद्धि-दायिनी, नील-कमल-वत् सुन्दर तीन नेत्रोंवाली, दया-सागरा! हे माँ! तुम कृपाकर मुझ जैसे भक्त को सौभाग्यामृत से सींच दो ॥ २॥
छोटे शरीरवाली, सभी प्रकार के गर्व से पूर्णा, सर्पादि वेश से उज्ज्वला, व्याघ्राम्बर से शोभित सुन्दर कटि में बँधी घण्टियों से मधुर शब्द करनेवाली, तत्काल कटे और रक्त बहते हुये दो नर-मुण्डों को परस्पर गले मिलाकर धारण करनेवाली, मुण्ड-माला से शोभित हे भयङ्करि माँ! मेरे भय का नाश करो ॥ ३॥
``ॐ स्त्रीं हूं फट्'' मन्त्र-स्वरूपवाली हे माँ! मेरे जैसे भक्त की तुम्ही शरण हो। हे माँ! तुम्हारा विग्रह स्थूल, सूक्ष्म और पर तीनों धाम से बना है। वेदों से भी उसका ज्ञान किसी प्रकार नहीं होता। विशेष ज्ञानियों द्वारा नमस्कृता तुम्हारा मैं आश्रय लेता हूँ ॥ ४॥
तुम्हारे चरण-कमलों की सेवा से पुण्यात्मा लोग सायुज्य मुक्ति को पाते हैं और ब्रह्मा-विष्णु-महेश के समान होते हैं। संसार-सागर में डूबने में चतुर इन्द्र प्रमुख देवताओं की, जो तुम्हारी चरण-सेवा से विमुख हैं, कौन मन्द-बुद्धि सेवा करता है? अर्थात् कोई बुद्धिमान् तुम्हें छोड़ अन्य देवों को उपासना नहीं करता ॥ ५॥
हे माँ! तुम्हारे दोनों चरण-कमलों की धूलि जिन देवों के मुकुटों पर अंकित है, वे देवासुर-संग्राम में विजयी होकर तुम्हारी गोद में निश्चित होकर रहते हैं। ``मैं देवता हूँ, त्रिभुवन में मेरे समान कोई नहीं है'' ऐसी स्पर्द्धावाले भेड़ों के समान स्वयं ही विनष्ट हो जाते हैं ॥ ६॥
हे माँ! तुम्हारे नाम के स्मरण मात्र से भूत-प्रेत-पिशाच राक्षसों के समूह और यक्ष, नाग, दैत्य, दानव, खेचर, व्याघ्रादि पशु, डाकिनी तथा क्रुद्ध यम भी भाग खड़े होते हैं, तुम्हारे भक्त की ओर देख तक नहीं सकते अर्थात् उन्हें कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकते ॥ ७॥
हे माँ! तेरे चरण-कमलों की सेवा से मनुष्यों को सभी गुणों की सिद्धि निश्चय ही मिल जाती है। लक्ष्मी-सिद्धि, सर्व-सिद्धियाँ, पादुकादि सिद्धियाँ, शत्रु-स्तम्भन, गज-समूह-स्तम्भन, सम्मोहनादि सिद्धियाँ प्राप्त होकर मनुष्य कामदेव से भी बढ़ जाता है। साधारण मनुष्य भी वृहस्पति के समान पूजनीय विद्वान् हो जाता है ॥ ८ ॥
फल श्रुति - जो भक्त मनुष्य इस पवित्र ताराष्टक को प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों काल में पवित्र होकर नियमित रूप से पढ़ता है, वह कवित्व-शक्ति प्राप्त कर सब शास्त्रों का जाननेवाला विद्वान् बन जाता है और अक्षय सम्पत्ति को पाकर, यथेच्छ भोगों का भोग कर कीर्ति, कान्ति, आरोग्यादि से सम्पन्न होकर सबका प्रिय होता है तथा तीनों लोकों में यश पाकर अन्त में मोक्ष-लाभ करता है ॥
इस प्रकार नीलतंत्र में वर्णित ताराष्टक स्तोत्र संपूर्ण हुआ ॥
Encoded and Proofread by Ravin Bhalekar ravibhalekar@hotmail.com